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छोटे छोटे दुःख

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :255
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2906
आईएसबीएन :81-8143-280-0

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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....

पहले जानना-सुनना होगा, तब विवाह !


प्रोफेसर प्रमथ चौधरी ने कहा था-'तुम लोगों के लिए पहले प्रेम, फिर विवाह! 'तुम लोगों' से उनका आशय था, पश्चिमी लोग!' आज अगर वे जिंदा होते, तो वे ज़रूरी यही कहते-तुम लोगों के लिए पहले यौन सम्पर्क, बाद में प्रेम! लेकिन इस बार प्रमथ चौधरी, का 'तुमलोग' सिर्फ 'तुमलोग' ही नहीं, अब 'हमलोग' हो गया है। शहरी शिक्षित लोगों में पहले प्रेम, फिर विवाह, तीन पीढ़ी पहले चालू हो चुका है। लेकिन, आज भी, बहुतेरे लोगों के लिए विवाह का मतलब, विधि का बंधन और माँ-बाप की मर्जी पर निर्भर है। आजकल विभिन्न अख़बार, विवाह दफ्तर, कम्प्यूटर में पात्र-पात्री चाहिए विभाग ने बिचौलिए की जिम्मेदारी ली है! यानी इन माध्यमों से लड़की देखना, दर-दस्तर करना, अंत में कहा जाए, व्यक्तिगत तरीके से परी तरह अनजान दो प्राणियों का विवाह! अगर पटरी न बैठी, तो आज की औरतें पति को त्याग देती हैं। पटरी बैठती भी हो, तो वे माँ बनने का झमेला नहीं लेना चाहतीं। 'लोग क्या कहेंगे-' इस डर से, आज की औरत अपने को समेटकर नहीं रखती; संकोच से सिमटी-सिकुड़ी भी नहीं रहतीं; अपनी इच्छाओं के तन पर पेट्रोल उँडेलकर, उनमें धू-धू आग नहीं लगातीं; गले में फाँस डालकर अपने सपनों को खत की कड़ियों से नहीं झुलातीं। हाँ, उन्होंने प्यार किया है, मगर प्यार करने की वजह से विवाह भी करना होगा। आज की औरत को इसमें कोई तुक नज़र नहीं आता। उनके लिए प्रेम करने का मतलब यह भी नहीं है कि इसे येन-केन तरीके से दीर्घस्थायी भी रखना होगा। आज उनके लिए यह भी बेमतलब है। आज तो प्रेमी के साथ, गहरे आवेग से तन से तन के मिलन में भी वे लोग कतई दुविधा नहीं करतीं। यौन-संपर्क की वजह से शरीर दूषित हो जाएगा, ऐसी कोई ग्लानि भी वे लोग महसूस नहीं करतीं। आज की औरत, प्रेमी का आचार-व्यवहार पसंद न आने पर, पहले की औरतों की तरह रोते-बिसूरते, खाना-पीना भी नहीं छोड़तीं। न आत्महत्या करती हैं, बल्कि प्रेमी को टा-टा, बाय-बाय करके चलता कर देती हैं। उसके बाद, नए सिरे से, किसी और से प्रेम करती हैं। इंसान प्रेम में सिर्फ एक ही बार पड़ता है! पहला प्यार ही असली प्यार है, बाद के प्यार को प्यार नहीं कहते-ऐसी अजीबोगरीब बात भी, अब कूड़े के ढेर में उछाल दी गयी है। इंसान किसी भी उम्र में प्यार कर सकता है। पचास-साठ-अस्सी, किसी भी उम्र में! आदमी सैकड़ों बार प्यार कर सकता है! एक ही प्रेम का बोझ, जिंदगी भर ढोते रहना होगा, यह बेतुकी बात है! प्रेम भले क्षणस्थायी हो, फिर भी वह खूबसूरत हो सकता है; दीर्घस्थायी प्रेम भी उबाऊ हो सकता है!

ये सब नवीना, आधुनिकाएँ, पान से संस्कार का चूना पोंछकर, प्रेमी-पुरुषहीन जिंदगी भी बड़ी शान से गुज़ारने का दम-खम रखती हैं। वे लोग अपने अकेले, एकांत में खुद ही, खुद से कह सकती हैं-

पुरुष बिना नारी की गति नहीं
धत्! धत् ! यह है किसी भूत घर की उक्ति
उछालकर फेंक दो ऐसी खोखली-सड़ी बातें
मत उलझाना, ऐसे लता-गुल्म की फाँस में,
खामखाह, अपनी विशुद्ध देहयष्टि!
भला क्यों जाओ विष-चींटियों की भीड़ में
तुम्हारे हाथ में है तीर और तरकश,
करो हस्तमैथुन!

सन् साठ के दशक में नारीवादियों का एक जनप्रिय नारा था-'वुमेन विदाउट मेन, फिश विदाउट बाइसायकिल!' मछली को जितने-से बायसायकिल की ज़रूरत है, औरत को उतनी सी ही मर्द की ज़रूरत है। जीवन में पुरुष की बिल्कुल भी ज़रूरत नहीं है, औरत ने औरत के साथ प्रेम और काम-वासना में जुड़कर, यह साफ़-साफ़ समझा दिया है। पश्चिम के 'रैडिकल लेसबियनिज्म' आंदोलन ने औरत को पितृतंत्र, पुत्रतंत्र, पुरुषों की पेशियों के दम-खम को अस्वीकार करते हुए, बाहर निकल आने को प्रेरित किया है।

कौन कहता है, मर्द में है क्षमता, समझे नारी-मन की भाषा
कौन कहता है, मर्द में है क्षमता, उसके अंतर्दाह में जले-फुके
चूँकि औरत ही देख सकती है, पाँखों की तरह खोल-खोलकर अपने ज़ख्म
औरत को ही झुकाना है होठ, अपने स्तन तक, चुंबन के लिए
औरत को ही खिलाना है योनिफूल, औरत की सजल उँगलियों में
औरत के अलावा किसमें है क्षमता, औरत को करे आकंठ प्यार?
 
समकामी भाव आदिकाल से ही मौजूद था, अभी भी मौजूद है! किसी ज़माने में समकाम को विकृति, प्रकृति-विरुद्ध कहा जाता था। अब यह किसी भी अन्य रिश्ते की तरह स्वाभाविक है। आजकल तो यह कहा जाता है कि यौनता ढेरों तरीके से अपनी तृप्ति की राह खोज लेती है। जिसकी, जैसी अभिरुचि! इस बात में किसी को भी, किसी तरह का एतराज नहीं होना चाहिए। इस देश में भी समकामिता के बारे में लिखा-लिखाया जा रहा है। लोगों की छिः-छिः, धिक्कार को पैसा भर भी अहमियत न देकर, कभी-कभार, कोई-कोई यह शान से कबूल करते हैं कि वे लोग समकामी हैं। कोई सोच सकता है, यह सब नई शती के लक्षण हैं। यह देखकर अच्छा लगता है कि बंगाली धीरे-धीरे संस्कारों के कारागार से मुक्ति के उजाले के अभिसारी हो रहे हैं। कल जो चीज़ सख्त चट्टान बनकर अड़ी थी, आज वह टुकड़े-टुकड़े होकर धूलधूसरित हो रही है। इंसान संस्कारों को इसी तरह तोड़ता है, हमेशा से इसी तरह तोड़ता आया है!

लेकिन कितने लोग? कितने लोग यह ज़ंजीर तोड़ रहे हैं? कितने लोग तोड़ पाए हैं?

मैं जिस समाज में पली-बढ़ी, बड़ी हुई हूँ, उस समाज में सड़े-गले पुराने नियमों को बड़े प्यार से पाला-पोसा जाता है। अधिकांश लड़कियाँ इन नियमों के जाल से मुक्त नहीं हो पातीं। जो औरतें निकल आती हैं, उनको नोचकर खा जाने के लिए, समाज के गण्यमान लोग अपने धारदार दाँत, नाखून बढ़ाए, उन लोगों पर झपट पड़ते हैं। औरतें कहती हैं-आएँ! क्या फर्क पड़ता है। मेरी जिंदगी, मेरी है, किसी और की नहीं। ये औरतें, तकिए के गिलाफ पर या रूमाल पर, लाल-हरे रंग के धागे से, समूची शाम बैठी-बैठी-'मुझे भुला मत देना या पति के पुण्य में ही सती का पुण्य' लिखने में, अपना वक्त बर्बाद करनेवाली औरतें नहीं हैं, बल्कि अभिभावकों की आगभभूखा आँखों के सामने अपने प्रेमी का हाथ थामकर सर्राटे से चल देती हैं।

उनका मन होता है, इसलिए चली जाती हैं। प्रेमी अगर सिर्फ दो आने देता है, तो आज की औरत भी बदले में सिर्फ दो आने ही देती हैं। जिंदगी हिसाब-किताव से चलती है। तुम पचास, मैं पचास! तुम मछली का माथा, मैं भी मछली का माथा! संयुक्त परिवार में गुज़ारा नहीं होगा, अलग गृहस्थी बसाओ। सास-ससुर, देवर-ननद के ताने, लानत-मलामत सुनने को मुझे कोई चाव नहीं है। बच्चा अगर रोते हुए नींद से जाग जाए, तो तुम्हें भी जागना होगा। जब मैं दफ्तर जाऊँ, उसे दूध पिलाने, नहलाने का दायित्व तुम्हारा! हम दोनों जब दफ्तर से लौटें, तो तुम बैठे आराम करो और मैं बावर्चीखाने में घुस जाऊँ, यह नहीं होने का! हम दोनों ही खाना पकाएँगे। हम दोनों ही बर्तन धोएँगे!

हाय गजब! घोर ग़ज़ब! ऐसी छोकरी देखी नहीं पहले,
नहीं देखा, तो क्या? लो, अब देख लो!
कितना कुछ पड़ेगा देखना, इस कलिकाल में!
बैठे हैं सिर पर हाथ रखे। समाज के कितने ही सिरमौर
बैठे हैं, तो बैठे रहें! किसको क्या!

अच्छा, तो क्या प्रेम दिनों-दिन कपूर की तरह उड़ता जा रहा है? इंसान क्या पहले की तरह, इंसान को प्यार नहीं करता? नहीं, वह आज भी प्यार करता है। मगर अब, प्रेम का चेहरा ज़रूर बदल गया है। प्रेम अब पहले जैसा नज़र नहीं आता। नहीं, निबिड़ रिश्तों में प्यार की गहराई भी कुछ कम नहीं होती। यह भी पहले की तरह ही है। लेकिन अब हिसाब-किताब पक्का कर लिया गया है। यह हिसाब-किताब भी वही कर रहे हैं, जिन लोगों को हमेशा ही ठगा गया है; जिन लोगों को हमेशा ही पाँच या दस मिलता रहा है और दूसरे पक्ष को पंचानबे या नब्बे! मुझे पता है कि हिसाब करके प्रेम नहीं होता, लेकिन हिसाब-किताब का सवाल तब उठता है। जब प्रेम एक ही पक्ष को सिर्फ सताता रहता है। सच बात तो यह है कि प्रेम का रूप अब दिनों-दिन बदलता ही जाएगा। इस दौरान, प्रेम की दुनिया काफी विस्तृत होती जा रही है। संयुक्त परिवार में पहले चचेरे, ममेरे, फुफेरे भाई-बहनों में प्यार हो जाता था। उसके बाद, पड़ोस की खिड़कियों पर निगाहें टिक गईं। अपने मुहल्ले से दूसरे मुहल्ले में! इसके बाद अपने शहर-गाँव से दूर दूसरे-दूसरे शहर या गाँव की तरफ! और अब देश की सीमा पार करके मन दूसरे-दूसरे देशों की तरफ उड़ानें भरने लगा है। यहाँ के लड़के-लड़कियाँ इंटरनेट के 'चैट चैनल' में घुसकर, समूची दुनिया को बस, एक क्लिक की दूरी पर ले आए हैं! अब माध्यम भी बदल गया है, भाषा भी! अब भिन्न भाषाओं में प्रेम हो रहा है! अपनी भाषा बिना प्रेम नहीं होता, ऐसा नहीं है, अब किसी भी भाषा में प्रेम हो सकता है। (कभी-कभी तो एक-दूसरे की भाषा-संस्कृति समझे-बूझे बिना ही एक-दूसरे के प्रेम में पड़ सकते हैं। जुबान की भाषा समझने की ज़रूरत नहीं पड़ती, तन और मन की भाषा समझने से ही काम चल जाता है। यह भाषा सार्वजनीन है)। भविष्य के चेहरे का अंदाज़ा लगाना, बिल्कुल आसान है। सूचना और प्रसारण के इस युग में, एक संस्कृति के इंसानों से, अन्य संस्कृति का मेल-जोल बढ़ता ही जाएगा, परंपरावादी संयुक्त परिवार की दहलीज लाँघकर लड़के-लड़कियाँ एक दूसरे से प्यार करेंगे और दुनिया धीरे-धीरे सिमटकर छोटी हो आएगी।

दुनिया का यही नियम है! इंसान जब विद्या-बुद्धि में परिणत होता है, अपने अधिकारों के प्रति सजग होता है, तो प्रेम भी परिणत हो जाता है। ऐसा होगा ही होगा। लेकिन कोई बाज़ार अर्थनीति, कोई भूमंडलीकरण, प्रेम की आग को फूंक मारकर बुझा नहीं सकता। प्रेम था, है, रहेगा। जितने दिनों यह शरीर है, जितने दिन मन है, उतने दिनों तक प्यार का सिलसिला जारी रहेगा। पश्चिमी दुनिया में हालाँकि डिलडो या वाइब्रेटर की मेहरबानी से, अब किसी लड़की को, देह की भूख से तड़पना नहीं पड़ता, लेकिन मन की प्यास से वे लोग आज भी तड़पती हैं! तुम्हारे बूंद भर मन के लिए रोती हैं, मेरे मन की बूंद-बूंद! सिर्फ पूर्व-पश्चिम में ही नहीं, उत्तर-दक्षिण की सभी संस्कृतियों के इंसान अपने मन के द्वार, किसी न किसी के लिए खुला रखते हैं। कोई गुपचुप रखता है, कोई खुलेआम! लेकिन आजकल माहौल में भावुक आवेगों के बजाय युक्ति की गंध ज़्यादा है। मैं पहले ही कह चुकी हूँ अपनी बात फिर दोहरा रही हूँ-तुम बनो गहिन गांग, मैं डूब मरी-शाश्वत प्रेम का यह संवाद चाहे जितना भी आकर्षक हो, यह सिर्फ मयमनसिंह के गीतकार के इतिहास में ही संचित है। अब यह किसी खन-मांस के इंसान की जबान पर शोभित नहीं होता।

शरतचंद्र पढ़कर, रोते-रोते तकिया भिगोने के दिन अब लद गए। वह सब छिछोरे टसुए बहाना, बूढ़ियों को ही शोभा देता है। नई औरत की आँखों के आँसू, इतने सस्ते नहीं हैं। अब वे अपना मोल समझने लगी हैं और अपने आँसुओं की कीमत भी! नई औरतों की नज़र अब सती-साध्वी, बड़ी बहू, मंझली बहू, छोटी बहू के किस्सों के बजाय नए अफसानों पर गड़ गई है, जहाँ दीपा, नीला, वाणी वगैरह औरतें शान से घूमती-फिरती हैं, घर-बाहर आज़ाद जिंदगी गुज़ारती हैं। जिनको बड़ी, मंझली, छोटी बहू बनने का कतई, कोई चाव नहीं है।



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    अनुक्रम

  1. आपकी क्या माँ-बहन नहीं हैं?
  2. मर्द का लीला-खेल
  3. सेवक की अपूर्व सेवा
  4. मुनीर, खूकू और अन्यान्य
  5. केबिन क्रू के बारे में
  6. तीन तलाक की गुत्थी और मुसलमान की मुट्ठी
  7. उत्तराधिकार-1
  8. उत्तराधिकार-2
  9. अधिकार-अनधिकार
  10. औरत को लेकर, फिर एक नया मज़ाक़
  11. मुझे पासपोर्ट वापस कब मिलेगा, माननीय गृहमंत्री?
  12. कितनी बार घूघू, तुम खा जाओगे धान?
  13. इंतज़ार
  14. यह कैसा बंधन?
  15. औरत तुम किसकी? अपनी या उसकी?
  16. बलात्कार की सजा उम्र-कैद
  17. जुलजुल बूढ़े, मगर नीयत साफ़ नहीं
  18. औरत के भाग्य-नियंताओं की धूर्तता
  19. कुछ व्यक्तिगत, काफी कुछ समष्टिगत
  20. आलस्य त्यागो! कर्मठ बनो! लक्ष्मण-रेखा तोड़ दो
  21. फतवाबाज़ों का गिरोह
  22. विप्लवी अज़ीजुल का नया विप्लव
  23. इधर-उधर की बात
  24. यह देश गुलाम आयम का देश है
  25. धर्म रहा, तो कट्टरवाद भी रहेगा
  26. औरत का धंधा और सांप्रदायिकता
  27. सतीत्व पर पहरा
  28. मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं
  29. अगर सीने में बारूद है, तो धधक उठो
  30. एक सेकुलर राष्ट्र के लिए...
  31. विषाद सिंध : इंसान की विजय की माँग
  32. इंशाअल्लाह, माशाअल्लाह, सुभानअल्लाह
  33. फतवाबाज़ प्रोफेसरों ने छात्रावास शाम को बंद कर दिया
  34. फतवाबाज़ों की खुराफ़ात
  35. कंजेनिटल एनोमॅली
  36. समालोचना के आमने-सामने
  37. लज्जा और अन्यान्य
  38. अवज्ञा
  39. थोड़ा-बहुत
  40. मेरी दुखियारी वर्णमाला
  41. मनी, मिसाइल, मीडिया
  42. मैं क्या स्वेच्छा से निर्वासन में हूँ?
  43. संत्रास किसे कहते हैं? कितने प्रकार के हैं और कौन-कौन से?
  44. कश्मीर अगर क्यूबा है, तो क्रुश्चेव कौन है?
  45. सिमी मर गई, तो क्या हुआ?
  46. 3812 खून, 559 बलात्कार, 227 एसिड अटैक
  47. मिचलाहट
  48. मैंने जान-बूझकर किया है विषपान
  49. यह मैं कौन-सी दुनिया में रहती हूँ?
  50. मानवता- जलकर खाक हो गई, उड़ते हैं धर्म के निशान
  51. पश्चिम का प्रेम
  52. पूर्व का प्रेम
  53. पहले जानना-सुनना होगा, तब विवाह !
  54. और कितने कालों तक चलेगी, यह नृशंसता?
  55. जिसका खो गया सारा घर-द्वार

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